Mobile Wallpaper – Mera Russe Na Kalgiyan Wala
Mobile Wallpaper – Mera Russe Na Kalgiyan Wala
It all about a letter from Guru Gobind Singh Ji to Aurangzeb after leaving Kachhi Gadi of Chamkour. Guru Ji wrote this letter in Deena Kangad and send it to Aurangzeb.
In this letter, Guru Gobind Singh Ji reminds Aurangzeb how he and his henchmen had broken their oaths sworn upon the Qur’an. He also states that in spite of his several sufferings, he had won a moral victory over the Emperor who had broken all his vows. Despite sending a huge army to capture or kill the Guru Ji, the Mughal forces did not succeed in their mission.
In the 111 verses of this notice, Guru Gobind Singh Ji rebukes Aurangzeb for his weaknesses as a human being and for excesses as a leader. Guru Gobind Singh also confirms his confidence and his unflinching faith in the Almighty even after suffering extreme personal loss of his Father, Mother, and all four of his sons to Aurangzeb’s tyranny.
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विसाखी के समय श्री अनन्दपुर साहब में सतगुरु गोबिंद सिंह जी के दरबार में कुछ प्रेमी सिक्ख गुरू दर्शनों को आए। कई दिन सुबह-शाम कीर्तन और गुरू वचन सुन कर निहाल होते रहे। एक दिन उन्होंने सतगुरू जी के चरणों में उपस्थित हो विनती की, सच्चे पातशाह! हमारे कोई पिछले अच्छे कर्म हैं जो आप जी के दर्शन हमें प्राप्त हुए हैं। आप जी ने हमें सिक्खी की दान बख्शीश की, हम आप जी के तन-मन से सिक्ख हैं।
यह पिछले चार-पाँच दिन तो हमने बैकुंठ (स्वर्ग) में ही बिताऐ हैं। अगला बैकुंठ तो हमनें नहीं देखा। पर जो चार दिन आप जी के चरणों में रह कर आप के दर्शन कर, कीर्तन सुन कर, हमारी आत्मा को शान्ति और आनंद प्राप्त हुआ है, हमारा यह समय कई बैकुंठों के आनंद से भी अच्छा व्यतीत हुआ है। हमारा मन तो घरों को वापिस जाने को नहीं कर रहा लेकिन कारोबार, काम-काज के चलते जाना ही पड़ता है, अत: आप जी अब हमें वापस जाने की आज्ञा प्रदान करें।
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सतगुरु जी मुस्कुराए और कहने लगे, भाई गुरसिक्खो ! मनुष्य संसार में शारीरिक सुख और मन की शान्ति प्राप्त करने के लिए कोई तप करता है, कोई जप करता, कोई धूणें तापता है, कोई घर परिवार छोड़ बाहर जंगलों में जाता है। आप बड़े भाग्य वाले हो जिनको संगत में आ कर सुख और शान्ति प्राप्त हुई है।
स्वर्ग और बैकुंठ की प्राप्ति के लिए कोई अश्वमेध यज्ञ करता है, कोई सोने, चाँदी, भूमि का दान करता है, कोई कठिन साधना करके शरीर को कष्ट में डालता है। आप धन्य हो, जिनको बैकुंठ का आनंद प्राप्त हुआ है। हम आपको सलाह देते हैं कि जहाँ आपने चार दिन शान्ति के साथ व्यतीत किये और बैकुंठ का आनंद प्राप्त किया, ऐसे समय प्रभु मेहर और भाग्य से ही प्राप्त होते हैं।
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आप आठ दिन ओर स्वर्ग का आनंद लो और मन की शान्ति प्राप्त करो, गुरू भली करेगा। घरों के काम कार कभी रुकते नहीं, वह तो चलते ही रहते हैं परन्तु ऐसा समय जिंदगी में कहीं विरला ही प्राप्त होता हैं अत: आप इस बैकुंठ का आनंद कुछ समय ओर ले लीजिए।
सतगुरुजी का यह वचन सुनकर सिक्खों के चेहरे मुरझा गए और बेमन से सत्य वचन कहा और अपने-अपने ठिकानों की ओर चले गए। क्योंकि सिक्खों ने सतगुरू जी के सम्मुख जो वचन बोले थे वैसी वृति (अवस्था) उनकी अभी बनी नहीं थी। सभी इकठ्ठा हो आपस में विचार करने लगे कि हम तो अच्छे अजीब स्थिति में फंसें हैं। आठ-आठ दिन घरों से निकलों को हो गए हैं। अब सतगुरू जी ने आठ दिन ओर यहाँ रहने के लिए हुक्म कर दिया है।
उन्होंने एक दो दिन बड़ी मुश्किल से बिताए और उन्हें फिर से अपनें घरों, बच्चों की याद तंग करने लगी। एक-एक दिन महीने समान व्यतीत होने लगा। दूसरी तरफ सतगुरु जी ने अनन्दगढ़ किले के पहरेदारों को बुला कर सख्ती के साथ कह दिया कि आपको इन सिक्खों का खास ध्यान रखना है। हमारी इजाजत के बिना यह सिक्ख किले में से बाहर न जाने पाएँ।
वे सारे सिक्ख जो कहते थे कि सतगुरू जी ! आपके दर्शन कर, वचन विलास और कीर्तन सुन कर हमें बैकुंठ से भी ज्यादा आनंद आता है, उन्होंने बड़ी मुश्किल से चार दिनों का समय बिताया। सभी ने इकठ्ठा हो कर आपसी सलाह मशवरा किया कि अगर हमनें बाकी के चार दिन भी कठिनाई उठा कर काट लिए, लेकिन जब हमनें सतगुरु जी से घरों को जाने की आज्ञा माँगी, अगर सतगुरू जी ने फिर से आठ-दस दिन और रहने को कह दिया, फिर क्या करेंगे? सतगुरू जी को हम ना नहीं कह पाएंगें तथा जबरदस्ती हम किले से बाहर निकल नहीं सकते, पहरा बहुत सख्त है। अब हमें कोई तरकीब (योजना) लगाकर ही किले से बाहर निकलना पड़ेगा।
काफी विचार विमर्श के बाद सभी इस बात पर सहमत हुए कि हम अपनें में से किसी एक को मुर्दा बना लें और उसे अर्थी पर डाल लें। चार लोग उसे उठा लेंगे। एक व्यक्ति आगे तथा दो व्यक्ति पीछे चल पड़ेंगे। आगे वाला सिक्ख ‘राम राम सत है, हर का नाम सत है’ कहता जाएगा अगर पहरेदार पूछेगा कि किधर चले हो, तो कह देंगे कि गुरू का अति प्यारा सिक्ख रात पेट दर्द होने के कारण ‘राम सत’ हो गया है। उस का दाह संस्कार करने के लिए बाहर जा रहे हैं।
अत: सारी योजना बनने के बाद दिन चढ़ते ही रात को बनाई योजना मुताबिक एक सिक्ख को मुर्दा बना ऊपर सफेद कपड़ा डाल, स्वयं को सिदकी (पक्के) सिक्ख कहलाने वाले सिक्ख, ‘राम-राम सत है’ कहते और ‘सेवक क्या ओड़कि निबही प्रीति’ शब्द पढ़ते हुए किले के दरवाजे के पास पहुँचे। दरबान सिक्ख ने पूछा कि क्या हुआ? किधर चले हो? सिक्खों बताया कि रात को हमारा साथी सिक्ख जो बहुत गुरू प्रेमी था, अचानक पेट दर्द होने के कारण ‘राम-सत’ हो गया है, जिसके मृत शरीर को अंतिम संस्कार के लिए बाहर लेकर जा रहे हैं।
दरबान ने सभी को रोक लिया और दूसरे सिक्ख को सारी घटना सतगुरू जी को बताने के लिए भेजा। उस सिक्ख ने कलगीधर पातशाह जी के चरणों में विनती की, पातशाह! रात को आप जी का एक बहुत प्यार वाला सिक्ख पेट दर्द होने के कारण अकाल चलाणा (स्वर्गवास) कर गया है। उसके शरीर का अंतिम संस्कार करने के लिए सात-आठ सिक्ख उसका बिबाण (अर्थी सजा) बना कर बाहर ले जाने के लिए किले के दरवाजे पर खड़े, ‘सेवक की ओड़कि निबही प्रीति’ शब्द पढ़ रहे हैं, आप जी की क्या आज्ञा है?
सतगुरु जी ने विनती करने आए सिक्ख से कहा, ‘ऐसा गुरू के प्यार वाला सिदकी सिक्ख अगर अकाल चलाणा कर गया है तो उसका अंतिम संस्कार हम अपने हाथों किले में ही करेंगे। बाहर भेजने की जरूरत नहीं है बल्कि उनको वापस किले में ले आवो और चिता सजाओ, हम भी जल्दी ही आते हैं।
दरबान सिक्ख ने वापस आ बनावटी मुर्दे के वारिसों को सतगुरू का संदेश देते हुए बताया कि सतगुरू जी का हुक्म है कि ऐसे सिदकी सिक्ख का संस्कार बाहर नहीं करना है, हम किले के अंदर ही उसका संस्कार अपने हाथों करेंगे। मुर्दे को वापस ले आवो, यह सतगुरू का हुक्म है।
दरबान के मुंह से यह संदेश सुन कर पाखंड रचाने वालों को डर से पसीना आ गया, सभी मन ही मन सोचने लगे कि अब क्या करेंगे? हमारी बनाई योजना हमें ही उलटी पड़ गई है। जाणी-जान (सर्वज्ञ) सतगुरु जी के आगे हमारा भेद खुल जाएगा और दूसरे सिक्ख भी हमें लाहनतें (फिटकारेंगे) देंगे कि इन्होंने किले से बाहर जाने के लिए यह क्या पाखंड रचा है? इसी सोच में छाती पर पत्थर रख कर फिर से ‘राम नाम सत’ करते वापस किले में आ गए और अर्थी रख दी।
दूसरी ओर श्री कलगीधर जी भी सिक्खों सहित पहुंच गए। उनकी तरफ देख कर मुस्कराए और पूछा, सिंहो! इसकी मौत किस तरह हुई है? दो सिक्खों ने बताया, पातशाह! रात को यह सिक्ख लंगर ग्रहण कर सोया, सुबह-सुबह इसके दर्द हुआ। थोड़ा दुआ दारू जो हमारे पास था, इसको दिया परन्तु आराम आने की बजाय यह राम सात हो गया, कह कर दोनों रोने लगे।
सब कुछ जानने वाले सत्तुरू जी ने सभी को दिलासा दिया और एक सिक्ख को कहा कि लकड़ी को को रूईं बांध, तेल डाल कर आग लगा लाए जिससे कि तसल्ली कर ली जाये कि सिक्ख वास्तव में चढ़ाई कर (मर) गया है, कहीं जीवित ही न जल जाये। गुरू हुक्म मान सिक्ख लकड़ी को रूईं बांध, तेल के साथ भिगो कर आग लगा लाया। सत्गुरू जी ने हुक्म किया कि इस मुर्दे को चिता पर बाद में रखेंगे, पहले इसके पैरों को आग लगा कर तसल्ली कर लो कि सिक्ख वास्तव में ही राम सत हो गया है।
सतगुरु जी का हुक्म मान कर जब सिक्खों ने मुर्दो के पैरों को मशाल लगाई तो वह अर्थी से उठ कर दौड़ गया। यह चमत्कार देख कर सतगुरू जी और सारी संगत हँसने लगी और वह सिक्ख जिन्होंने यह पाखंड रचा था सतगुरू जी के चरणों में गिर पड़े और रो-रो कर माफी माँगने लगे कि सतगुरू जी हमारी आस्था डोल गई जिसके चलते यह गलती हो गई। हमें घर के काम काज और परिवार के मोह ने अत्यंत दु:खी कर दिया था और इसके अलावा हमनें सोचा कि कहीं सतगुरू जी आठ दिन ओर ठहरने के लिए हुक्म न कर देने, जिसके हमनें बाहर निकलने के लिए पाखंड रचा था।
सतगुरू जी ने उन सिक्खों की विनती सुन कर वचन किया, सिक्खो ! गुरू हमेशा बख्शिंद (माफ करने वाला) है। गुरू को आपके रहने या जाने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा परन्तु आप ही यह कहते थे कि हमें संगत में रह कर कीर्तन सुन कर बैकुंठ के आनंद से भी ज्यादा आनंद की प्राप्ति हुई है, दरअसल यह सारा कुछ आपके कहने मात्र ही था। अगर आपको ऐसी अवस्था प्राप्त हुई होती तो आप ऐसा पाखंड न करते।
एक तरफ तो आप गुरू को सर्वज्ञ और अंतरयामी कहते हो। दूसरी तरफ आप गुरू को अपने जैसा मनुष्य समझ कर उसे धोखा देने के लिए बहाना बनाते हो। हम तो अंदर और बाहर से एक नमूने के पक्के सिक्ख बनाने हैं परन्तु आप तो सिक्ख बन कर गुरू के आगे ही छल-कपट का प्रदर्शन करने लग गये। सतगुरू के वचन सुनकर आस्था से डोले इन सिक्खों ने गुरू चरणों पर माथा टेक माफी माँगी और भविष्य में अंदर और बाहर से एक जैसे होने का वादा गुरदेव जी के साथ किया। सतगुरू जी ने अपने बख्शिंद स्वभाव अनुसार, सिक्खों को क्षमा कर, अंदर से खोट निकाल, सिक्खी में आस्था की बख्शिशें कर विदा किया।
शिक्षा – बनावटी दिखावा बहुत देर तक साथ नहीं देता। फिर ऐसे गुरू के आगे, जो गुरसिक्खों को बार-बार यह दृढ़ करवाता है कि हे गुरसिक्खो ! आप अपने अंदर से झूठ-कपट, छल-फरेब को दूर कर हरी नाम का जप करो तब तुम गुरू नजर और मेहर से निहाल, निहाल, निहाल हो जाओगे।
Waheguru Ji Ka Khalsa Waheguru Ji Ki Fateh
– Bhull Chuk Baksh Deni Ji –
ਵਿਸਾਖੀ ਦੇ ਸਮੇਂ ਸ੍ਰੀ ਅਨੰਦਪੁਰ ਸਾਹਿਬ ਵਿਖੇ ਸਤਿਗੁਰੂ ਗਰੂ ਗੋਬਿੰਦ ਜੀ ਦੇ ਦਰਬਾਰ ਵਿੱਚ ਕੁਝ ਇੱਕ ਪ੍ਰੇਮੀ ਸਿੱਖ ਗੁਰੂ ਦਰਸ਼ਨਾਂ ਨੂੰ ਆਏ। ਕਈ ਦਿਨ ਸਵੇਰੇ-ਸ਼ਾਮ ਕੀਰਤਨ ਅਤੇ ਗੁਰੂ ਬਚਨ ਸਰਵਣ ਕਰ ਨਿਹਾਲ ਹੂੰਦੇ ਰਹੇ। ਇਕ ਦਿਨ ਉਹਨਾਂ ਸਤਿਗੁਰੂ ਜੀ ਦੇ ਚਰਨਾਂ ਵਿੱਚ ਹਾਜਰ ਹੋ ਬੇਨਤੀ ਕੀਤੀ, ਸੱਚੇ ਪਾਤਸ਼ਾਹ! ਸਾਡੇ ਕੋਈ ਪਿਛਲੇ ਚੰਗੇ ਕਰਮ ਹਨ ਜੋ ਆਪ ਜੀ ਦੇ ਦਰਸ਼ਨ ਸਾਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੋਏ। ਆਪ ਜੀ ਨੇ ਸਾਨੂੰ ਸਿੱਖੀ ਦੀ ਦਾਤ ਬਖਸ਼ਿਸ਼ ਕੀਤੀ, ਅਸੀਂ ਆਪ ਜੀ ਦੇ ਤਨੋ-ਮਨੋ ਸਿੱਖ ਹਾਂ।
ਇਹ ਪਿਛਲੇ ਚਾਰ-ਪੰਜ ਦਿਨ ਤਾਂ ਅਸੀਂ ਬੈਕੁੰਠ ਵਿੱਚ ਬਿਤਾਏ ਹਨ। ਅਗਲਾ ਬੈਕੁੰਠ ਤਾਂ ਅਸੀਂ ਨਹੀਂ ਵੇਖਿਆ। ਜੋ ਚਾਰ ਦਿਨ ਆਪ ਜੀ ਦੇ ਚਰਨਾਂ ਵਿੱਚ ਰਹਿ ਕੇ ਆਪ ਦੇ ਦਰਸ਼ਨ ਕਰ, ਕੀਰਤਨ ਸਰਵਣ ਕਰ, ਸਾਡੀ ਆਤਮਾਂ ਨੂੰ ਸ਼ਾਂਤੀ ਤੇ ਅਨੰਦ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੋਇਆ ਹੈ, ਸਾਡਾ ਇਹ ਸਮਾਂ ਕਈ ਬੈਕੁੰਠਾਂ ਦੇ ਅਨੰਦ ਤੋ ਵਧੀਕ ਬਤੀਤ ਹੋਇਆ ਹੈ। ਸਾਡਾ ਮਨ ਤਾਂ ਘਰਾਂ ਨੂੰ ਵਾਪਿਸ ਜਾਣ ਨੂੰ ਨਹੀਂ ਕਰਦਾ ਪਰ ਕੰਮਾਂ-ਕਾਰਾਂ ਕਰਕੇ ਜਾਣਾ ਪੈਂਦਾ ਹੈ, ਸੋ ਆਪ ਜੀ ਹੁਣ ਸਾਨੂੰ ਵਾਪਸ ਜਾਣ ਦੀ ਆਗਿਆ ਬਖਸ਼ੋ।
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ਸਤਿਗੁਰੂ ਜੀ ਮੁਸਕੁਰਾਏ ਤੇ ਕਹਿਣ ਲੱਗੇ, ਭਾਈ ਗੁਰਸਿੱਖੋ! ਸੰਸਾਰ ਵਿੱਚ ਬੰਦਾ ਸਰੀਰਕ ਸੁੱਖ ਤੇ ਮਨ ਦੀ ਸ਼ਾਂਤੀ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰਨ ਲਈ ਕੋਈ ਤਪ ਕਰਦਾ ਹੈ, ਕੋਈ ਜਪ ਕਰਦਾ, ਕੋਈ ਧੂਣੀਆਂ ਤਾਪਦਾ, ਕੋਈ ਘਰ ਬਾਹਰ ਛੱਡ ਬਾਹਰ ਜੰਗਲਾਂ ਵਿੱਚ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਤੁਸੀਂ ਵਡਭਾਗੇ ਹੋ ਜਿੰਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਸੰਗਤ ਵਿੱਚ ਆ ਕੇ ਸੁੱਖ ਤੇ ਸ਼ਾਂਤੀ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੋਈ ਹੈ। ਸਵਰਗ ਤੇ ਬੈਕੁੰਠ ਦੀ ਪ੍ਰਾਪਤੀ ਵਾਸਤੇ ਕੋਈ ਅਸਵਮੇਧ ਯੱਗ ਕਰਦਾ, ਕੋਈ ਸੋਨੇ, ਚਾਂਦੀ, ਭੂਮੀ ਦਾ ਦਾਨ ਕਰਦਾ, ਕੋਈ ਹੋਰ ਔਖੇ ਸਾਧਨ ਕਰਕੇ ਸਰੀਰ ਨੂੰ ਕਸ਼ਟ ਵਿੱਚ ਪਾਉਂਦਾ। ਤੁਸੀਂ ਧੰਨਭਾਗੇ ਹੋ, ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਬੈਕੁੰਠ ਦਾ ਅਨੰਦ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੋਇਆ।
ਅਸੀਂ ਤੁਹਾਨੂੰ ਸਲਾਹ ਦਿੰਦੇ ਹਾਂ ਕਿ ਜਿੱਥੇ ਤੁਸੀਂ ਚਾਰ ਦਿਨ ਸ਼ਾਂਤੀ ਨਾਲ ਬਤੀਤ ਕੀਤੇ ਤੇ ਬੈਕੁੰਠ ਦਾ ਅਨੰਦ ਮਾਣਿਆ, ਅਜਿਹੇ ਸਮੇਂ ਪ੍ਰਭੂ ਮਿਹਰ ਤੇ ਭਾਗਾਂ ਨਾਲ ਹੀ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੁੰਦੇ ਹਨ। ਤੁਸੀਂ ਅੱਠ ਦਿਨ ਹੋਰ ਸਵਰਗ ਦਾ ਅਨੰਦ ਲਉ ਅਤੇ ਮਨ ਦੀ ਸ਼ਾਂਤੀ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰੋ, ਗੁਰੂ ਭਲੀ ਕਰੇਗਾ। ਘਰਾਂ ਦੇ ਕੰਮ ਕਾਰ ਕਦੇ ਰੁਕਦੇ ਨਹੀਂ, ਉਹ ਤੇ ਚਲਦੇ ਹੀ ਰਹਿਣੇ ਹਨ ਪਰ ਅਜਿਹੇ ਸਮੇਂ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਵਿੱਚ ਕਿਤੇ ਵਿਰਲੇ ਹੀ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੁੰਦੇ ਹਨ ਸੋ ਇਸ ਬੈਕੁੰਠ ਦਾ ਅਨੰਦ ਕੁੱਝ ਸਮਾਂ ਹੋਰ ਮਾਣ ਲਵੋ।
ਸਤਿਗੁਰੂ ਜੀ ਦਾ ਇਹ ਬਚਨ ਸੁਣ ਕੇ ਸਿੱਖਾਂ ਦੇ ਚਿਹਰੇ ਮੁਰਝਾ ਗਏ ਅਤੇ ਓਪਰੇ ਦਿਲੋਂ ਸਤਿਬਚਨ ਕਿਹਾ ਅਤੇ ਆਪੋ ਆਪਣੇ ਟਿਕਾਣਿਆਂ ਤੇ ਚਲੇ ਗਏ। ਕਿਉਂਕਿ ਸਿੱਖਾਂ ਨੇ ਸਤਿਗੁਰੂ ਜੀ ਦੇ ਸਨਮੁੱਖ ਜੋ ਬਚਨ ਕਹੇ ਸਨ ਉਸ ਪਾਏ ਦੀ ਬਿਰਤੀ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੀ ਅਜੇ ਬਣੀ ਨਹੀਂ ਸੀ। ਸਾਰੇ ਇਕੱਠੇ ਹੋਏ ਆਪਸੀ ਵਿਚਾਰ ਕਰਨ ਲੱਗੇ ਕਿ ਅਸੀਂ ਚੰਗੇ ਕਸੂਤੀ ਸਥਿੱਤੀ ਵਿੱਚ ਫਸੇ ਹਾਂ। ਅੱਠ-ਅੱਠ ਦਿਨ ਘਰਾਂ ਵਿੱਚੋਂ ਨਿਕਲਿਆਂ ਨੂੰ ਹੋ ਗਏ ਹਨ। ਹੁਣ ਸਤਿਗੁਰੂ ਜੀ ਨੇ ਅੱਠ ਦਿਨ ਹੋਰ ਇੱਥੇ ਰਹਿਣ ਲਈ ਹੁਕਮ ਕਰ ਦਿੱਤਾ ਹੈ।
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ਉਹਨਾਂ ਇੱਕ ਦੋ ਦਿਨ ਔਖੇ ਸੌਖੇ ਕੱਟੇ, ਘਰਾਂ ਦੀ, ਧੀਆਂ-ਪੁਤਰਾਂ ਦੀ ਯਾਦ ਮੁੜ-ਮੁੜ ਤੰਗ ਕਰਨ ਲੱਗੀ। ਇੱਕ-ਇੱਕ ਦਿਨ ਮਹੀਨੇ ਸਮਾਨ ਬਤੀਤ ਹੋਣ ਲੱਗਾ। ਦੂਸਰੇ ਪਾਸੇ ਸਤਿਗੁਰੂ ਜੀ ਨੇ ਅਨੰਦਗੜ੍ਹ ਦੇ ਕਿਲ੍ਹੇ ਅੰਦਰ ਜੋ ਪਹਿਰੇਦਾਰ ਸਨ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਸੱਦ ਕੇ ਸਖਤੀ ਨਾਲ ਕਹਿ ਦਿੱਤਾ ਕਿ ਤੁਸੀਂ ਇਨ੍ਹਾਂ ਸਿੱਖਾਂ ਦਾ ਖਾਸ ਖਿਆਲ ਰੱਖਣਾ ਹੈ। ਸਾਡੀ ਇਜ਼ਾਜ਼ਤ ਤੋਂ ਬਿਨਾਂ ਇਹ ਸਿੱਖ ਕਿਲ੍ਹੇ ਵਿੱਚੋਂ ਬਾਹਰ ਨਾ ਜਾਣ।
ਉਹ ਸਾਰੇ ਸਿੱਖ ਜੋ ਕਹਿੰਦੇ ਸਨ ਕਿ ਸਤਿਗੁਰੂ ਜੀ! ਤੁਹਾਡੇ ਦਰਸ਼ਨ ਕਰਕੇ ਬਚਨ ਬਿਲਾਸ ਤੇ ਕੀਰਤਨ ਸੁਣ ਕੇ ਸਾਨੂੰ ਬੈਕੁੰਠ ਨਾਲੋਂ ਭੀ ਜਿਆਦਾ ਅਨੰਦ ਆਉਂਦਾ ਹੈ, ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੇ ਮਸਾਂ ਚਾਰ ਕੁ ਦਿਨਾਂ ਦਾ ਸਮਾਂ ਕੱਢਿਆ ਤੇ ਸਾਰਿਆਂ ਨੇ ਇਕੱਠੇ ਹੋ ਕੇ ਆਪਸੀ ਗਰੁ ਮਤਾ ਕੀਤਾ ਕਿ ਜੇ ਆਪਾਂ ਚਾਰ ਦਿਨ ਹੋਰ ਵੀ ਔਖ ਸੌਖ ਨਾਲ ਕੱਟ ਲਏ,
ਜਦੋਂ ਆਪਾਂ ਸਤਿਗੁਰੂ ਜੀ ਪਾਸੋਂ ਘਰਾਂ ਨੂੰ ਜਾਣ ਦੀ ਆਗਿਆ ਮੰਗੀ, ਜੇ ਫਿਰ ਸਤਿਗੁਰੂ ਜੀ ਨੇ ਅੱਠ-ਦੱਸ ਦਿਨ ਹੋਰ ਰਹਿਣ ਲਈ ਕਹਿ ਦਿੱਤਾ, ਫਿਰ ਕੀ ਕਰਾਂਗੇ? ਸਤਿਗੁਰੂ ਜੀ ਨੂੰ ਆਪਾਂ ਜੁਆਬ ਦੇ ਨਹੀਂ ਸਕਣਾ। ਜ਼ੋਰ ਨਾਲ ਅਸੀਂ ਕਿਲ੍ਹੇ ਤੋਂ ਬਾਹਰ ਨਿਕਲ ਨਹੀਂ ਸਕਦੇ, ਪਹਿਰਾ ਬੜਾ ਸਖ਼ਤ ਹੈ। ਹੋਵੇ ਨਾਂ ਤਾਂ ਆਪਾਂ ਕੋਈ ਵਿਉਂਤ ਬਣਾ ਕੇ ਕਿਸੇ ਤਰ੍ਹਾਂ ਇੱਕ ਵਾਰੀ ਕਿਲ੍ਹੇ ‘ਚੋਂ ਬਾਹਰ ਨਿਕਲ ਚਲੀਏ।
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ਸੋਚਦਿਆਂ-ਸੋਚਦਿਆਂ ਸਾਰੇ ਇੱਕ ਵਿਚਾਰ ਤੇ ਸਹਿਮਤ ਹੋਏ ਕਿ ਆਪਣੇ ਵਿੱਚੋਂ ਇੱਕ ਨੂੰ ਮੁਰਦਾ ਬਣਾ ਲਈਏ ਤੇ ਓਸ ਨੂੰ ਸੀੜੀ ਉੱਪਰ ਪਾ ਲਈਏ। ਚਾਰ ਜਾਣੇ ਉਸ ਨੂੰ ਚੁੱਕ ਲਵਾਂਗੇ। ਇੱਕ ਜਾਣਾ ਅੱਗੇ ਦੋ ਜਾਣੇ ਪਿੱਛੇ ਤੁਰ ਪਵਾਂਗੇ। ਅੱਗੇ ਵਾਲਾ ਸਿੱਖ “ਰਾਮ ਰਾਮ ਸੱਤ ਹੈ, ਹਰ ਕਾ ਨਾਮ ਸੱਤ ਹੈ” ਕਹਿਣ ਲੱਗ ਜਾਵੇਗਾ ਜੇ ਪਹਿਰੇਦਾਰ ਪੁੱਛੇਗਾ ਕਿ ਕਿਧਰ ਚੱਲੇ ਹੋ, ਤਾਂ ਕਹਿ ਦੇਵਾਂਗੇ ਕਿ ਗੁਰੂ ਕਾ ਅਤੀ ਪਿਆਰਾ ਸਿੱਖ ਰਾਤ ਪੇਟ ਦਰਦ ਹੋਣ ਨਾਲ “ਰਾਮ ਸਤਿ” ਹੋ ਗਿਆ ਹੈ। ਉਸ ਦਾ ਦਾਹ ਸਸੰਕਾਰ ਕਰਨ ਵਾਸਤੇ ਬਾਹਰ ਚੱਲੇ ਹਾਂ।
ਸੋ ਸਾਰੀ ਵਿਉਂਤ ਬਣਾ ਕੇ ਦਿਨ ਚੜ੍ਹੇ ਰਾਤ ਦੀ ਬਣਾਈ ਸਕੀਮ ਅਧੀਨ, ਇੱਕ ਨੂੰ ਮੁਰਦਾ ਬਣਾ, ਚਿੱਟਾ ਬਸਤ੍ਰ ਉੱਪਰ ਪਾ, ਆਪਣੇ ਆਪ ਨੂੰ ਸਿਦਕੀ ਸਿੱਖ ਕਹਿਲਾਉਣ ਵਾਲੇ ਸਿੱਖ, “ਰਾਮ-ਰਾਮ ਸੱਤ ਹੈ” ਕਹਿੰਦੇ ਤੇ “ਸੇਵਕ ਕੀ ਓੜਕਿ ਨਿਬਹੀ ਪ੍ਰੀਤਿ” ਸ਼ਬਦ ਪੜ੍ਹਦੇ ਕਿਲ੍ਹੇ ਦੇ ਦਰਵਾਜ਼ੇ ਕੋਲ ਪਹੁੰਚੇ। ਦਰਬਾਨ ਸਿੱਖ ਨੇ ਪੁੱਛਿਆ ਕਿ ਕੀ ਗੱਲ ਹੈ? ਕਿਧਰ ਚੱਲੇ ਹੋ? ਸਿੱਖਾਂ ਦੱਸਿਆ ਕਿ ਰਾਤ ਸਾਡਾ ਸਾਥੀ ਸਿੱਖ ਜੋ ਬਹੁਤ ਗੁਰੂ ਪ੍ਰੇਮੀ ਸੀ, ਅਚਾਨਕ ਦਰਦ ਹੋਣ ਕਾਰਣ ਰਾਮ ਸੱਤ ਹੋ ਗਿਆ ਹੈ, ਇਸ ਦਾ ਅੰਤਿਮ ਸੰਸਕਾਰ ਕਰਨ ਵਾਸਤੇ ਇਸ ਦੇ ਸਰੀਰ ਨੂੰ ਬਾਹਰ ਲਿਜਾ ਰਹੇ ਹਾਂ।
ਦਰਬਾਨ ਨੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਰੋਕ ਲਿਆ ਤੇ ਦੂਸਰੇ ਸਿੱਖ ਨੂੰ ਸਾਰੀ ਵਿਥਿਆ ਸਤਿਗੁਰੂ ਨੂੰ ਦੱਸਣ ਵਾਸਤੇ ਭੇਜਿਆ। ਉਸ ਸਿੱਖ ਨੇ ਕਲਗੀਧਰ ਪਾਤਸ਼ਾਹ ਜੀ ਦੇ ਚਰਨਾਂ ਵਿੱਚ ਬੇਨਤੀ ਕੀਤੀ, ਪਾਤਸ਼ਾਹ! ਰਾਤ ਨੂੰ ਇੱਕ ਆਪ ਜੀ ਦਾ ਬਹੁਤ ਪਿਆਰ ਵਾਲਾ ਸਿੱਖ ਦਰਦ ਹੋਣ ਨਾਲ ਅਕਾਲ ਚਲਾਣਾ ਕਰ ਗਿਆ ਹੈ। ਉਸ ਦੇ ਸਰੀਰ ਦਾ ਸਸਕਾਰ ਕਰਨ ਵਾਸਤੇ ਸੱਤ-ਅੱਠ ਸਿੱਖ ਉਸ ਦਾ ਬਿਬਾਣ ਬਣਾ ਕੇ ਬਾਹਰ ਲਿਜਾਣ ਲਈ ਕਿਲ੍ਹੇ ਦੇ ਦਰਵਾਜੇ ਅੱਗੇ ਖੜੇ,”ਸੇਵਕ ਕੀ ਓੜਕਿ ਨਿਬਹੀ ਪ੍ਰੀਤਿ” ਸ਼ਬਦ ਪੜ੍ਹ ਰਹੇ ਹਨ, ਸਾਹਿਬਾਂ ਦੀ ਕੀ ਆਗਿਆ ਹੈ?
ਸਤਿਗੁਰੂ ਜੀ ਬੇਨਤੀ ਕਰਨ ਵਾਲੇ ਸਿੱਖ ਨੂੰ ਕਹਿਣ ਲੱਗੇ ਕਿ ਅਜਿਹਾ ਗੁਰੂ ਦੇ ਪਿਆਰ ਵਾਲਾ ਸਿਦਕੀ ਸਿੱਖ ਜੇ ਅਕਾਲ ਚਲਾਣਾ ਕਰ ਗਿਆ ਹੈ ਤਾਂ ਉਸ ਦਾ ਅੰਤਿਮ ਸੰਸਕਾਰ ਅਸੀਂ ਆਪਣੇ ਹੱਥੀਂ ਕਿਲ੍ਹੇ ਵਿੱਚ ਹੀ ਕਰਾਂਗੇ। ਬਾਹਰ ਭੇਜਣ ਦੀ ਲੋੜ ਨਹੀਂ ਸਗੋਂ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਵਾਪਸ ਕਿਲ੍ਹੇ ਵਿੱਚ ਲੈ ਆਵੋ ਤੇ ਚਿਖਾ ਬਣਾਵੋ, ਅਸੀਂ ਵੀ ਸ਼ੀਘਰ ਹੀ ਆਉਂਦੇ ਹਾਂ।
ਦਰਬਾਨ ਸਿੱਖ ਨੇ ਬਨਾਵਟੀ ਬਣੇ ਮੁਰਦੇ ਦੇ ਵਾਰਸਾਂ ਨੂੰ ਸਤਿਗੁਰਾਂ ਦਾ ਸੁਨੇਹਾ ਦਿੱਤਾ ਕਿ ਸਤਿਗੁਰੂ ਜੀ ਨੇ ਹੁਕਮ ਕੀਤਾ ਹੈ ਕਿ ਅਜਿਹੇ ਸਿਦਕੀ ਸਿੱਖ ਦਾ ਸਸਕਾਰ ਬਾਹਰ ਨਹੀਂ ਕਰਨਾ, ਅਸੀਂ ਕਿਲ੍ਹੇ ਦੇ ਅੰਦਰ ਹੀ ਉਸ ਦਾ ਸਸਕਾਰ ਆਪਣੇ ਹੱਥੀਂ ਕਰਾਂਗੇ। ਮੁਰਦੇ ਨੂੰ ਵਾਪਸ ਲੈ ਆਵੋ, ਇਹ ਸਤਿਗੁਰਾਂ ਦਾ ਹੁਕਮ ਹੈ।
ਦਰਬਾਨ ਦੇ ਮੁੱਖੋਂ ਇਹ ਸੁਨੇਹਾ ਸੁਣ ਕੇ ਪਖੰਡ ਰਚਾਉਣ ਵਾਲਿਆਂ ਨੂੰ ਠੰਡੀਆਂ ਤ੍ਰੇਲੀਆਂ ਆਉਣ ਲੱਗ ਪਈਆਂ, ਸਾਰੇ ਮਨੋ-ਮਨੀ ਸੋਚਣ ਲੱਗੇ ਕਿ ਹੁਣ ਕੀ ਕਰਾਂਗੇ? ਸਾਡੀ ਬਣਾਈ ਵਿਉਂਤ ਸਾਨੂੰ ਹੀ ਪੁੱਠੀ ਪੈ ਗਈ ਹੈ। ਜਾਣੀ ਜਾਣ ਸਤਿਗੁਰੂ ਜੀ ਅੱਗੇ ਸਾਡਾ ਪਾਜ ਉੱਘੜ ਜਾਣਾ ਹੈ ਤੇ ਬਾਕੀ ਸਿੱਖ ਵੀ ਸਾਨੂੰ ਲਾਹਣਤਾਂ ਪਾਉਣਗੇ ਕਿ ਇਨ੍ਹਾਂ ਨੇ ਬਾਹਰ ਜਾਣ ਵਾਸਤੇ ਇਹ ਕੀ ਪਖੰਡ ਰਚਿਆ ਹੈ? ਇਨ੍ਹਾਂ ਸੋਚਾਂ ਅਧੀਨ ਛਾਤੀ ਤੇ ਪੱਥਰ ਧਰ ਕੇ ਮੁੜ “ਰਾਮ ਨਾਮ ਸੱਤ” ਕਰਦੇ ਵਾਪਸ ਕਿਲ੍ਹੇ ਵਿੱਚ ਆ ਗਏ ਤੇ ਅਰਥੀ ਰੱਖ ਦਿੱਤੀ।
ਉਧਰੋਂ ਸ੍ਰੀ ਕਲਗੀਧਰ ਜੀ ਵੀ ਸਿੱਖਾਂ ਸਮੇਤ ਪੁੱਜ ਗਏ। ਉਨ੍ਹਾਂ ਵੱਲ ਵੇਖ ਕੇ ਮੁਸਕਰਾਏ ਤੇ ਪੁੱਛਿਆ, ਸਿੰਘੋ! ਇਸ ਦੀ ਕਿਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਮੌਤ ਹੋਈ ਹੈ? ਦੋ ਸਿੱਖਾਂ ਨੇ ਦੱਸਿਆ, ਪਾਤਸ਼ਾਹ! ਰਾਤ ਨੂੰ ਇਹ ਸਿੰਘ ਲੰਗਰ ਛਕ ਕੇ ਸੁੱਤਾ, ਤੜਕਸਾਰ ਇਸ ਦੇ ਦਰਦ ਹੋਈ। ਥੋੜਾ ਦੁਆ ਦਾਰੂ ਜੋ ਸਾਡੇ ਪਾਸ ਸੀ, ਇਸ ਨੂੰ ਦਿੱਤਾ ਪਰ ਅਰਾਮ ਆਉਣ ਦੀ ਬਜਾਏ ਇਹ ਰਾਮ ਸੱਤ ਹੋ ਗਿਆ, ਕਹਿ ਕੇ ਦੋਵੇਂ ਰੋਣ ਲੱਗ ਗਏ।
ਜਾਣੀ ਜਾਣ ਸਤਿਗੁਰੂ ਜੀ ਨੇ ਸਾਰਿਆਂ ਨੂੰ ਦਿਲਾਸਾ ਦਿੱਤਾ ਤੇ ਇੱਕ ਸਿੱਖ ਨੂੰ ਕਿਹਾ ਕਿ ਲੱਕੜ ਨੂੰ ਰੂਈਂ ਬੰਨ, ਤੇਲ ਪਾ ਕੇ ਅੱਗ ਲਾ ਲਿਆਵੇ ਤਾਂ ਜੋ ਤਸੱਲੀ ਕਰ ਲਈ ਜਾਵੇ ਕਿ ਵਾਕਿਆ ਹੀ ਸਿੱਖ ਚੜ੍ਹਾਈ ਕਰ ਗਿਆ ਹੈ, ਕਿਤੇ ਜਿੰਦਾ ਹੀ ਨਾ ਸਾੜਿਆ ਜਾਵੇ। ਗੁਰੂ ਹੁਕਮ ਮੰਨ ਸਿੱਖ ਲੱਕੜ ਨੂੰ ਰੂਈਂ ਬੰਨ, ਤੇਲ ਨਾਲ ਭਿਉਂ ਕੇ ਅੱਗ ਲਾ ਲਿਆਇਆ। ਸਤਿਗੁਰੂ ਜੀ ਨੇ ਹੁਕਮ ਕੀਤਾ ਕਿ ਇਸ ਮੁਰਦੇ ਨੂੰ ਚਿਖਾ ਵਿੱਚ ਬਾਅਦ ਵਿੱਚ ਰੱਖਾਂਗੇ, ਪਹਿਲਾਂ ਇਸ ਦੇ ਪੈਰਾਂ ਨੂੰ ਅੱਗ ਲਾ ਕੇ ਨਿਰਣਾ ਕਰ ਲਵੋ ਕਿ ਸਿੱਖ ਸੱਚੀਂ ਹੀ ਰਾਮ ਸੱਤ ਹੋ ਗਿਆ ਹੈ।
ਸਤਿਗੁਰੂ ਜੀ ਦਾ ਹੁਕਮ ਮੰਨ ਕੇ ਜਦੋਂ ਸਿੱਖਾਂ ਨੇ ਮੁਰਦੇ ਦੇ ਪੈਰਾਂ ਨੂੰ ਚੁਆਤੀ ਲਾਈ ਤਾਂ ਉਹ ਸੀੜ੍ਹੀ ਤੋਂ ਉੱਠ ਕੇ ਭੱਜ ਤੁਰਿਆ। ਇਹ ਚਮਤਕਾਰ ਵੇਖ ਕੇ ਸਤਿਗੁਰੂ ਜੀ ਤੇ ਸਾਰੀ ਸੰਗਤ ਹੱਸਣ ਲੱਗ ਪਈ ਤੇ ਉਹ ਸਿੱਖ ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਨੇ ਇਹ ਪਖੰਡ ਰਚਿਆ ਸੀ ਸਤਿਗੁਰਾਂ ਦੇ ਚਰਨੀਂ ਢਹਿ ਪਏ ਤੇ ਰੋ-ਰੋ ਕੇ ਮੁਆਫ਼ੀ ਮੰਗੀ ਕਿ ਸਤਿਗੁਰੂ ਜੀ ਅਸੀਂ ਸਿਦਕ ਤੋਂ ਡੋਲ ਕੇ ਇਹ ਗਲਤੀ ਕੀਤੀ ਹੈ। ਸਾਨੂੰ ਘਰ ਦੇ ਕੰਮ ਤੇ ਧੀਆਂ-ਪੁਤਰਾਂ ਦੇ ਮੋਹ ਨੇ ਅਤਿਅੰਤ ਦੁਖੀ ਕੀਤਾ ਤੇ ਨਾਲ ਹੀ ਅਸੀਂ ਵੀਚਾਰਿਆ ਕਿ ਸਤਿਗੁਰੂ ਜੀ ਅੱਠ ਦਿਨ ਹੋਰ ਠਹਿਰਣ ਲਈ ਹੁਕਮ ਨਾ ਕਰ ਦੇਣ, ਜਿਸ ਕਾਰਣ ਅਸੀਂ ਬਾਹਰ ਨਿਕਲਣ ਲਈ ਪਖੰਡ ਰਚਿਆ ਸੀ।
ਸਤਿਗੁਰੂ ਜੀ ਨੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਸਿੱਖਾਂ ਦੀ ਬੇਨਤੀ ਸੁਣ ਕੇ ਬਚਨ ਕੀਤਾ, ਸਿੱਖੋ! ਗੁਰੂ ਹਮੇਸ਼ਾ ਬਖਸ਼ਿੰਦ ਹੈ। ਗੁਰੂ ਨੂੰ ਤੁਹਾਡੇ ਰਹਿਣ ਜਾਂ ਜਾਣ ਨਾਲ ਕੋਈ ਫਰਕ ਨਹੀਂ ਪੈਣਾ ਪਰ ਤੁਸੀਂ ਹੀ ਇਹ ਕਹਿੰਦੇ ਸੀ ਕਿ ਅਸੀਂ ਸੰਗਤ ਵਿੱਚ ਰਹਿ ਕੇ ਕੀਰਤਨ ਸੁਣ ਕੇ ਬੈਕੁੰਠ ਨਾਲੋਂ ਵੀ ਜਿਆਦਾ ਅਨੰਦ ਮਾਣਿਆ ਹੈ, ਦਰਅਸਲ ਇਹ ਸਾਰਾ ਕੁਝ ਤੁਹਾਡੇ ਕਹਿਣ ਮਾਤਰ ਹੀ ਸੀ। ਇਹ ਅਵਸਥਾ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੋਈ ਹੁੰਦੀ ਤਦ ਤੁਸੀਂ ਅਜਿਹਾ ਪਖੰਡ ਨਾ ਕਰਦੇ। ਇੱਕ ਪਾਸੇ ਤੁਸੀਂ ਗੁਰੂ ਨੂੰ ਸਰਬੱਗ ਤੇ ਅੰਤਰਯਾਮੀ ਕਹਿੰਦੇ ਹੋ। ਦੂਸਰੇ ਪਾਸੇ ਤੁਸੀਂ ਗੁਰੂ ਨੂੰ ਆਪਣੇ ਵਰਗਾ ਇਨਸਾਨ ਸਮਝ ਕੇ ਉਸ ਨੂੰ ਧੋਖਾ ਦੇਣ ਦਾ ਬਹਾਨਾ ਬਣਾਉਂਦੇ ਹੋ।
ਅਸੀਂ ਤਾਂ ਅੰਦਰੋਂ ਬਾਹਰੋਂ ਇੱਕ, ਨਮੂਨੇ ਦੇ ਪੱਕੇ ਸਿੱਖ ਸਾਜਣੇ ਹਨ ਪਰ ਤੁਸੀਂ ਸਿੱਖ ਬਣ ਕੇ ਗੁਰੂ ਅੱਗੇ ਹੀ ਛਲ-ਕਪਟ ਦਾ ਵਿਖਾਵਾ ਕਰਨ ਲਗ ਪਏ। ਸਤਿਗੁਰਾਂ ਦੇ ਬਚਨ ਸੁਣ ਕੇ ਇਨ੍ਹਾਂ ਸਿਦ੍ਕੋੰ ਡੋਲੇ ਸਿੱਖਾਂ ਨੇ ਗੁਰੂ ਚਰਨਾਂ ਤੇ ਮੱਥੇ ਟੇਕ ਮੁਆਫੀ ਮੰਗੀ ਤੇ ਅੱਗੇ ਤੋ ਅੰਦਰੋ ਬਾਹਰੋ ਇੱਕ ਹੋ ਪਲੱਣ ਦਾ ਗੁਰਦੇਵ ਜੀ ਨਾਲ ਨਾਲ ਵਾਅਦਾ ਕੀਤਾ। ਸਤਿਗੁਰਾਂ ਨੇ ਆਪਣੇ ਬਖਸ਼ਿੰਦ ਸੁਭਾਅ ਅਨੁਸਾਰ, ਸਿੱਖਾਂ ਨੂੰ ਖਿਮਾਂ ਕਰ, ਅੰਦਰੋਂ ਖੋਟ ਕੱਢ, ਸਿੱਖੀ ਸਿਦਕ ਦੀਆਂ ਬਖਸ਼ਿਸ਼ਾਂ ਕਰ ਰੁਖਸਤ (ਵਿਦਾ) ਕੀਤਾ।
ਸਿੱਖਿਆ – ਬਨਾਉਟੀ ਪ੍ਰਗਟਾਵਾ ਬਹੁਤਾ ਚਿਰ ਤੱਕ ਸਾਥ ਨਹੀਂ ਦਿੰਦਾ। ਫਿਰ ਐਸੇ ਗੁਰੂ ਅੱਗੇ, ਜਿਹੜਾ ਗੁਰਸਿੱਖਾਂ ਨੂੰ ਵਾਰ-ਵਾਰ ਦ੍ਰਿੜ ਕਰਵਾਉਂਦਾ ਹੈ ਕਿ ਹੇ ਗੁਰਸਿੱਖੋ! ਤੁਸੀਂ ਆਪਣੇ ਅੰਦਰੋਂ ਕੂੜ-ਕਪਟ, ਛਲ-ਫਰੇਬ ਨੂੰ ਦੂਰ ਕਰਕੇ ਹਰੀ ਨਾਮ ਦੀ ਘਾਲ ਕਰੋ ਤਦ ਤੁਸੀਂ ਗੁਰੂ ਨਦਰ ਨਾਲ ਨਿਹਾਲ, ਨਿਹਾਲ, ਨਿਹਾਲ ਹੋ ਜਾਵੋਗੇ।
Waheguru Ji Ka Khalsa Waheguru Ji Ki Fateh
– Bhull Chuk Baksh Deni Ji –
It all about a letter from Guru Gobind Singh Ji to Aurangzeb after leaving Kachhi Gadi of Chamkour. Guru Ji wrote this letter in Deena Kangad and send it to Aurangzeb.
In this letter, Guru Gobind Singh Ji reminds Aurangzeb how he and his henchmen had broken their oaths sworn upon the Qur’an. He also states that in spite of his several sufferings, he had won a moral victory over the Emperor who had broken all his vows. Despite sending a huge army to capture or kill the Guru Ji, the Mughal forces did not succeed in their mission.
In the 111 verses of this notice, Guru Gobind Singh Ji rebukes Aurangzeb for his weaknesses as a human being and for excesses as a leader. Guru Gobind Singh also confirms his confidence and his unflinching faith in the Almighty even after suffering extreme personal loss of his Father, Mother, and all four of his sons to Aurangzeb’s tyranny.
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