It all about a letter from Guru Gobind Singh Ji to Aurangzeb after leaving Kachhi Gadi of Chamkour. Guru Ji wrote this letter in Deena Kangad and send it to Aurangzeb.
In this letter, Guru Gobind Singh Ji reminds Aurangzeb how he and his henchmen had broken their oaths sworn upon the Qur’an. He also states that in spite of his several sufferings, he had won a moral victory over the Emperor who had broken all his vows. Despite sending a huge army to capture or kill the Guru Ji, the Mughal forces did not succeed in their mission.
In the 111 verses of this notice, Guru Gobind Singh Ji rebukes Aurangzeb for his weaknesses as a human being and for excesses as a leader. Guru Gobind Singh also confirms his confidence and his unflinching faith in the Almighty even after suffering extreme personal loss of his Father, Mother, and all four of his sons to Aurangzeb’s tyranny.
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अम्बाला के दउला गांव का रहने वाला गंगू शाह व्यापार में मनोवांछित सफलता नहीं पा रहा था। पहले अपने गांव में किए व्यापार में नुकसान हुआ, फिर लाहौर जैसे बड़े शहर में भी व्यापार में नफा बस ना के बराबर ही था। उदास गंगू शाह बहुत परेशान था।
अरे भाई, ये काफिला कहाँ जा रहा है?
गंगू भाई, हम सब गोइंदवाल साहब जा रहे हैं।
वहाँ क्या है?
वहाँ धन्न गुरु अमरदास जी महाराज रहते हैं। उनके दर्शन को काबुल, कंधार और बहुत दूर-दूर से श्रद्धालु आते हैं। वो दर्शन उपरांत वहां से यादगार के तौर पर कुछ ना कुछ सामान जरूर खरीद कर जाते हैं, वहां लाभ की अच्छी संभावना है।
गंगू शाह ने भी अपना सामान छकड़े पर लादा और काफिले के साथ गोइंदवाल आ गया।
गोइंदवाल में सचमुच किसी बड़े मेले सी धूम थी, गंगू शाह का सामान कुछ ही दिनों में अच्छे लाभ में बिक गया।
अब दिल्ली जा कर और अच्छा सामान ले कर आता हूँ, ये मंडी अच्छी है…….यहीं दुकान लगा कर व्यापार अच्छा चलता है।
लेकिन…… क्यों ना नया माल भरने से पहले एक बार इस गुरु को भी मिल लिया जाए, जिसको मिलने इतने लोग बावरों की तरह रोज यहां आते हैं।
ऐसा कुछ सोचते हुए गंगू शाह गुरु दरबार में आ कर श्रद्धालुओं की पंक्ति में खड़ा हो गया।
एक-एक कर के आगे बढ़ते हुए गुरु जी की मिल रही हर एक झलक गंगू शाह के मन में दर्शन की ललक को और गहरा करती गई।
आखिर वो समय आ गया। गंगू शाह सतगुरु जी के सामने था, इतना सुरूर…..इतनी शांति…….हतप्रभ से खड़े गंगू शाह को पता ही नहीं चला कब उसके हाथ में गुरु जी के लिए लाई भेंट सतगुरु जी के श्री चरणों में जा गिरी थी।
आओ शाह जी, व्यापार तो अब ठीक है ना?
सतगुरु जी, आपकी कृपा है, बस इतना ही कहते गंगू शाह ने अपना मस्तक सतगुरु जी के चरणों में झुका दिया।
उठो शाह जी, आज आप अपनी दुकान छोड़ यहां कैसे आ गए?
सतगुरु जी, मैं अपने धंधे में बरकत ढूंढता था, लेकिन आज मैं जान गया हूँ, सब बरकत, सब लाभ, आपकी कृपा से ही प्राप्त होते हैं।
गंगू शाह, बरकत क्या है?
गुरु जी, हम व्यापारी तो सारा साल व्यापार करने के बाद माल में लगी लागत निकालने के बाद हाथ में आए अतिरिक्त धन लाभ को ही बरकत कहते हैं।
ठीक है गंगू शाह, ये परिभाषा तो अच्छी बरकत की है, सच्ची बरकत क्या है?
महाराज, आप ही समझाएँ, सच्ची बरकत क्या है?
गंगू शाह, एक बीज पर माली मेहनत करता है, उसे पौधे से पेड़ बनाता है। उस पेड़ पर हर साल सैंकड़ो फल लगते हैं, लेकिन पेड़ एक भी फल अपने पास नहीं रखता सब का सब वापिस लौटा देता है। वो एक बीज पेड़ के रूप में फल के साथ सैंकड़ो बीज भी हर वर्ष लौटा देता है। उसी तरह समाज से व्यापार कर उत्पन्न होने वाला धन, समाज के ही कल्याण कार्य में खर्च करने पर मनुष्य सच्ची बरकत पा सकता है। लेकिन मनुष्य का मन कई तरह के विषयों में घिरा रहता है। कुछ विरलों को छोड़ कर बाकी सब व्यापारिक कमाई को अपना मान कर, स्वयं को उसका स्वामी मान कर जीवन व्यतीत करते हैं। जिस बन्दे ने वर्षो में टका टका बचा कर धन एकत्र किया हो वो समाज पर खुले दिल से खर्च कैसे करे। इसके निदान हेतु गुरु नानक साहब जी ने सिख को दसवंध (कमाई का दसवां भाग) समाज की भलाई पर खर्च करने का हुक्म दिया, गरीब के मुख को गुरु की गोलक कहा।
गंगू शाह! दिल्ली जा रहा है, दिल्ली में ही व्यापार कर, बस गुरु नानक साहब की ये बातें याद रखना।
1. सच्ची किरत (कमाई) करना 2. बन्दगी करना 3. मिल बाँट कर खाना (दसवंध जरूर निकालना)
पर गुरु जी….मैं भला कैसे जानूँगा, कौन जरूरत मन्द है? कौन भला है? कौन बुरा है? इन सब में उलझने से बचने के लिए 1 उपाय मुझे सूझ रहा है अगर आप की आज्ञा हो तो अर्ज करूँ।
गंगू शाह, दसवन्ध (कमाई का दसवां भाग) देने के लिए निर्वाण और दयालु हृदय चाहिए। जब कोई दु:खी फरियाद ले कर आता है तो दयालु जीव को उसकी आत्मा ही सत्कर्म करने को प्रेरित करती है और वो उस जीव की सहायता ‘तेरा तुझ को अर्पण’ की भावना से करता है, और उसका हृदय निरंकार का उसे सेवा कार्य बख्शने हेतु धन्यवाद करता है। तूँ व्यापारी है, अपनी समझ बता।
सतगुरु जी, मेरा मन कहता है कि मैं धन गुरु नानक साहब जी महाराज के नाम का एक खाता अपनी बही में बना लूँ, हर सौदे के नफे (लाभ) का 10 वाँ हिस्सा मैं गुरु नानक साहब जी महाराज का जमा करता रहूं और जब कभी आप को जरूरत हो आप एक चिट्ठी लिख कर उस रकम को जैसे और जिस सेवा में खर्च करने को कहें, मैं उसे उसी अनुसार खर्च कर दूँ।
ठीक है व्यापारिया, जैसा तेरा मन, गुरु नानक साहब तेरा भला करें।
गंगू शाह दिल्ली आ गया।
कुछ वर्ष बीत गए।
गंगू शाह का व्यापार दिन दौगुनी रात चौगुनी रफ्तार से बढ़ रहा था। काम संभालने को सैंकड़ो नौकर-चाकर रखे हुए थे। सारा शहर गंगू को अब शाह जी, शाह जी पुकारता था, बड़े बड़े रईस, नवाब अक्सर गंगू शाह से धन आदि की सहायता लेने उसकी बड़ी सी हवेली में आते रहते थे।
एक दिन एक ब्राह्मण गंगू शाह के घर आया, उसने गंगू शाह को एक खत दिया।
ये खत गुरु अमरदास पातशाह जी ने भेजा था जिसमे उन्होंने गंगू शाह को गुरु नानक साहब के खाते में से उस पण्डित को बेटी की शादी के लिए 500 रुपए सेवा रूप में देने की बात लिखी थी।
मुनीम जी, जरा देखो……हमारे पास किसी गुरु नानक का खाता है?
मुनीम सब बही खोल कर देखने लगा और बोला,
शाह जी, इन बहीओं में तो गुरु नानक नाम के बन्दे का कोई खाता नहीं, हाँ शायद किसी बहुत पुरानी बही में शायद कोई खाता था कि नहीं, मुझे याद नहीं।
जाओ पण्डित जी, यहां गुरु नानक नाम के बन्दे का कोई खाता नहीं, गंगू शाह ने बोला।
लेकिन गुरु अमरदास जी ने कहा था कि ये चिट्ठी पढ़कर गंगू शाह तेरी मदद करेंगें।
अब जब खाता ही नही हैं, तो पैसा किस बात का दूँ…….और ये सब दौलत मुझे किसी गुरु नानक ने नहीं, मेरी व्यापारिक समझ और मेरी मेहनत ने मुझे दिलवाई है, और ऐसे किसी की भी चिट्ठी पढ़ कर मैं अपना धन लुटाता रहा तो सिर्फ गंगू रह जाऊँगा, शाह नहीं।
पण्डित जी वापिस गोइंदवाल आ गए, गुरु जी को सब बात सुनाई। सतगुरु जी ने भाई पारो जी को हुक्म कर पण्डित जी की यथायोग्य सहायता कर उन्हें विदा किया।
कुछ महीने बीत गए।
श्रद्धालुओं की पंक्ति आज भी सदा की तरह लम्बी थी,गोइंदवाल आज भी जैसे किसी भरे मेले सा ही लग रहा था।
लेकिन आज पंक्ति में एक जन लगातार मुँह छुपाए रोए जा रहा था, आज सतगुरु जी की यदा-कदा दिखती झलक से भी वो बचना चाहता था।
और आज फिर वो समय आ गया।
सतगुरु जी सामने शोभायमान थे और आज उनके चरणों पर कोई भेंट नहीं एक निढाल सा शरीर पड़ा था, जो अपना सिर ऊपर उठाने को राजी ना था।
आओ गंगू शाह, कैसा रहा व्यापार?
मैं पहले ही अपने कर्मो के कारण शर्मसार हूँ सतगुरु। मुझे और लज्जित ना करें। आप की दया से वर्षो में कमाया धन, आपसे विमुख हो कर कुछ दिनों में खो दिया। आप की दया से नवाबों को कर्ज देने वाले गंगू को आपसे विमुख होने पर कोई पानी भी नहीं पूछता। सारी कुदरत मुझसे ऐसे रूठ गई है कि जिन तरकीबों से व्यापार में अथाह धन उतपन्न होता था उन तरकीबों ने मुझे कंगाल कर दिया। मैं जान गया सतगुरु, व्यर्थ के अहंकार में मनुष्य को कितनी क्षति होती है। जब हवेली छोड़ कर चलने लगा तो पुराने सन्दूक में एक बही पड़ी थी ये दिल्ली में मेरे व्यापार की पहली बही थी उसमें मैंने अपने हाथों से पहला खाता धन्न गुरु नानक साहब का डाला था और पहले वर्ष के हुए लाभ में से 500 रुपए गुरु नानक साहब को दसवन्ध के रूप में देना लिखा था। आपने तो मुझ मूर्ख से उतनी ही सेवा मांगी थी जो प्रथम वर्ष में मैंने स्वयं गुरु नानक साहब जी के नाम देना लिखी थी। मुझे बख्श दीजिये सतगुरु, मुझे बख्श दीजिये।
गंगू शाह, क्या व्यापार फिर से शुरू करना चाहते हो?
नहीं सतगुरु, अब मुझे आपके पास रहना है। जो धन इतने वर्षों तक मेहनत करने के बाद भी मुझे छोड़ गया अब वो धन ऐश्वर्य मुझे नहीं चाहिए। मुझे बस अब आपका सानिध्य चाहिए। मैंने इस लोक के हर सुख का उपभोग कर लिया। अब मुझे पारलौकिक आनन्द की अनुभूति चाहिए जो आपकी दया से और आपके श्री चरणों की सेवा से ही मिल सकती है। मुझे भाई पारो जैसे आपका प्यार चाहिए।
गंगू शाह ने सतगुरु जी के सानिध्य में रह कर उनके उपदेशानुसार जीवन जी कर ब्रह्मज्ञान की अवस्था प्राप्त की और सतगुरु जी की आज्ञा से अपने पैतृक गांव देउला आ कर गुरमत का प्रचार किया। उनकी सेवा और सिमरणी जीवन की उन पर धन्न गुरु अमरदास जी की इतनी रहमत हुई कि देउला गांव में आज भाई गंगू शाह की अंश-वंश ‘शाह जी’ के नाम से ही सम्मान पाती हैं।
शिक्षा: हमें सतगुरु के वचनों का पालन करना चाहिए और दीन-हीन की सेवा में हर समय तत्पर रहना चाहिए।
एक कुलीन समृद्ध जाट परिवार के जमींदार के यहाँ सन्तान नहीं थी। उसका नाम उदम सिंह था किन्तु उसकी नम्रता के कारण भाई आदम नाम से उसको प्रसिद्धि प्राप्त थी। सन्तान की अभिलाषा के कारण वह कई सन्तों व फकीरों के चक्कर काटता रहा किन्तु उसकी मँशा पूर्ण नहीं हुई घीरे-धीरे उसकी आयु भी बढ़ती चली गई इसलिए उसने अपने भाग्य पर सन्तोष कर लिया। एक दिन उसकी भेंट एक सिक्ख से हुई उसने उसे विश्वास दिलवाया कि तेरी इच्छा श्री गुरू नानक देव जी के घर से अवश्य पूर्ण होगी। इन दिनों उनके चौथे उत्तराधिकारी श्री गुरू रामदास जी गुरू गद्दी पर विराजमान हैं। अतः आप जी उनकी शरण में गुरू चक्क (श्री अमृतसर साहिब जी) चले जाओ।
भाई आदम जी अब वृद्धावस्था के निकट पहुँचने वाले थे अतः उन्होंने सन्तान की मँशा त्याग दी थी किन्तु उनकी पत्नी के दिल में यह उमँग जागृत थी। उसके बल देने पर भाई आदम जी केवल आध्यात्मिक फल की प्राप्ति के दृष्टिकोण से गुरू चरणों में उपस्थित हो गए और जनसाधारण की तरह सेवा में जुट गए। गुरू घर का वातावरण उनको बहुत भाया। यहाँ सभी लोग निष्काम होकर सेवा करते दिखाई देते थे। समस्त संगत के दिल में केवल आध्यात्मिक उन्नति की मात्र चाह होती थी।
बस यह आकर्षण भाई आदम जी को यहीं निवास करने के लिए प्रेरित करने लगा। उन्होंने गुरू के चक्क में ही अपना अलग से घर बना लिया और समृद्ध होने का स्वाँग त्यागकर एक श्रमिक की भाँति जीवन व्यतीत करना प्रारम्भ कर दिया। वह दम्पति (पति-पत्नि) प्रातः उठकर जँगल में चले जाते, वहाँ से ईंधन की लकड़ियों के गट्ठर उठाकर लौट आते किन्तु भाई आदम जी अपने सिर वाला बोझा बाजार में बिक्री कर देते और उनकी पत्नि अपने वाला बोझा घर की रसाई के लिए इन लकड़ियों के ईंधन के रूप में प्रयोग करती परन्तु इन गट्ठरों से अधिकाँश लकड़ियाँ बची रहती जो कि घीरे-धीरे एक बड़े भण्डार के रूप में इकट्ठी होती गई।
शीत ऋतु थी। एक दिन गुरूदेव के दर्शनों को दूर-दूर प्रदेशों से संगत आई हुई थी कि अकस्मात् वर्षा होने लगी जिस कारण सर्दी बढ़ती चली गई। घीमी-धीमी वर्षा रूकने का नाम ही नहीं ले रही थी। दो-तीन दिन वर्षा इसी प्रकार बनी रही। इस बीच लँगर में ईंधन समाप्त हो गया। भोजन तैयार करने में बाधा उत्पन्न हो गई। जैसे की इस बात का भाई आदम जी को मालूम हुई वह अपने घर से एकत्र किया हुआ ईंधन उठा-उठाकर लँगर के लिए लाने लगे। उनकी पत्नी ने जब संगत को ठिठुरते हुए देखा तो उसने भी घर में एकत्र किए हुए लकड़ी के कोयले अंगीठियों में जलाकर संगत के समक्ष आग रोकने के लिए धर दिए। संगत ने राहत की साँस ली। जब विश्रामगृह में गुरूदेव संगत की सुध लेने पहुँचे, तो उन्होंने पाया कि संगत बहुत प्रसन्न है। उन्होनें पूछा यह अंगीठियाँ जलाकर समस्त डेरों में पहुँचाने की सेवा किसने की है तो मालूम हुआ भाई आदम और उनकी पत्नी ने यह सेवा की है। यह जानकर गुरूदेव अति प्रसन्न हुए।
उन्होंने भाई आदम जी को अपने दरबार में बुलाकर कहा: हम आपकी सेवा से बहुत खुश हुए आप माँगो क्या माँगते हो। भाई आदम जी अब दिल से निष्काम हो चुके थे। उन्होंने सिर नीचा कर लिया और कहा: मुझे आपकी कृपा दृष्टि चाहिए, आप मुझे केवल प्रभु नाम का घन दीजिए। उत्तर में गुरूदेव ने कहा: यह धन तो आपको पहले से ही मिला हुआ है किन्तु हम आपकी मूल अभिलाषा पूर्ण करना चाहते हैं। इस पर भी भाई आदम जी कुछ माँग नहीं पाए, क्योंकि उनको वृद्धावस्था में सन्तान सुख माँगते लज्जा का अनुभव हो रहा था।
फिर गुरूदेव ने उनसे कहा: कि आप कल दरबार में अपनी पत्नी को भी साथ लेकर आओ। अगले दिन भाई आदम जी अपनी पत्नी समेत दरबार में हाजिर हुए। गुरूदेव ने उसकी पत्नी से पूछा: आपके दिल में कोई कामना हो तो बताओ। वह कहने लगी: घर से चलते समय तो पुत्र की कामना थी। जिसको आधार बनाकर आपके दरबार में पहुँचे हैं। किन्तु अब कोई औचित्य नहीं रहा, क्योंकि अब हम बड़ी आयु के हो गए हैं।
गुरूदेव ने कहा: गुरूघर में किसी बात की भी कमी नहीं है यदि कोई निष्काम होकर सेवा करता है तो उसकी आँतरिक मन की कामना अवश्य फलीभूत होती है आप चिँता न करें जल्दी की आप एक सुन्दर पुत्र की माता बनेंगी। उसका नाम भक्तू रखना। उसका पालन-पोषण गुरू मर्यादा पूर्वक करना जिससे वह आपके कुल का नाम रोशन करेगा। इस प्रकार आर्शीवाद देकर गुरूदेव ने इस दम्पति को उनके गाँव वापिस भेज दिया।
कलान्तर में गुरू इच्छा से ऐसा ही हुआ। भाई भक्तू जी ने गुरूघर की बहुत सेवा की और आगे जाकर उनकी सन्तान ने गुरू दरबार में बहुत नाम कमाया।
श्री गुरू अरजन देव साहिब जी के दरबार में एक दिन एक गुरमुख नाम का श्रद्धालू उपस्थित हुआ और वह विनती करने लगा। हे गुरूदेव ! मैं आप जी द्वारा रचित रचना सुखमनी साहिब नित्यप्रति पढ़ता हूं मुझे इस रचना के पढ़ने पर बहुत आनँद प्राप्त होता है, परन्तु मेरे दिल में एक अभिलाषा ने जन्म लिया है कि मैं उस विशेष व्यक्ति के दर्शन करूँ जिसकी महिमा आपने ब्रहमज्ञानी के रूप में की है। गुरू जी इस सिक्ख पर प्रसन्न हुए और कहने लगे आपकी अभिलाषा अवश्य ही पूर्ण की जाएगी। उन्होंने एक पता बताया और कहा कि आप जिला जेहलम (पश्चिमी पँजाब) के भाई भिखारी नामक सिक्ख के घर चले जाएँ। वहाँ आपके मन की मँशा पूर्ण होगी।
गुरमुख सिंघ जी खोज करते-करते भाई भिखारी जी के घर पहुँचे। उस समय उनके यहाँ उनके लड़के के शुभ विवाह की बड़ी धूमधाम से तैयारियाँ हो रही थीं। आप जी भिखारी जी के कक्ष में उनको मिलने पहुँचे। किन्तु भाई जी एक विशेष कपड़े की सिलाई में व्यस्त थे। भाई भिखारी जी ने आगन्तुक का हार्दिक स्वागत किया और अपने पास बड़े प्रेम से बैठा लिया।
गुरमुख सिंघ जी को बड़ा आश्चर्य हुआ और वह पूछ बैठेः कि आप यह क्या सिल रहे हैं ? जो इस शुभ समय में अति आवश्यक है ? उत्तर में भिखारी जी ने कहाः कि आप सब जान जाएँगे, जल्दी ही इस कपड़े की आवश्यकता पड़ने वाली है। इस वार्तालाप के पश्चात भाई भिखारी जी के सुपुत्र की बारात समधी के यहाँ गई और बहुत धूम-धाम से विवाह सम्पन्न कर, बहु को लेकर लौट आई। जैसे ही लोग बधाईयाँ देने के लिए इक्ट्ठे हुए तो उसी समय गाँव पर डाकूओं ने हमला कर दिया। गाँव के लोग इक्ट्ठे होकर डाकूओं से लोहा लेने लगे, इन योद्धाओं में दूल्हा भी डाकूओं को सामना करने पहुँच गया। अकस्मात मुकाबला करते समय डाकूओं की गोली दूल्हे को लगी, वह वहीं वीरगति पा गया।
इस दुखतः घटना से सारे घर पर शोक छा गया, किन्तु भाई भिखारी जी के चेहरे पर निराशा का कोई चिन्ह तक न था। उन्होंने बड़े सहज भाव से वहीं अपने हाथों से सिला हुआ कपड़ा निकाला और उसको बेटे के कफन रूप में प्रयोग किया और बहुत घैर्य से अपने हाथों बेटे का अन्तिम सँस्कार कर दिया।
तब आगन्तुक गुरमुख सिंघ जी ने पुछाः जब आपको मालूम था कि आपके बेटे ने मर जाना है, तो आपने उसका विवाह ही क्यों रचा ? इसके उत्तर में भाई भिखारी जी ने कहाः यह विवाह मेरे इस बेटे के सँयोग में था। इसलिए इस कन्या के वरण हेतु ही उसने मेरे घर जन्म लिया था, क्योंकि इसके भूतपूर्व जन्म में इसकी अभिलाषा इस कन्या को प्राप्त करने की थी परन्तु उस समय यह सँन्यासी, योग आश्रम में था, इसलिए ऐसा सम्भव नहीं था। तभी इसकी भक्ति सम्पूर्ण हो गई परन्तु इसे मोक्ष प्राप्ति नहीं हुई। क्योंकि इसके मन में एक तृष्णा रह गई थी कि मैं इस लड़की को प्राप्त करूँ। इस सँक्षिप्त उत्तर से आगन्तुक श्रद्धालु का सँशय निवृत नहीं हुआ।
उसने पुनः भाई जी से विनती कीः कृप्या मुझे विस्तारपूर्वक सुनाएँ।
इस पर भाई भिखारी जी ने यह वृतान्त इस प्रकार सुनायाः मेरे इस बेटे ने अपने भूतपूर्व जन्म में एक कुलीन परिवार में जन्म लिया था। इसे किसी कारण युवावस्था में सँसार से विराग हो गया। अतः इसने सँन्यास ले लिया ओर एक कुटिया बनाकर वनों में अपनी अराधना करने लगा परन्तु जीवन जीने के लिए यह कभी-कभी गाँव-देहातों में आता और भिक्षा माँगकर पेट की आग बुझा लेता। कुछ दिन ऐसे जी व्यतीत हो गए परन्तु एक दिन इस युवक को कहीं से भी भिक्षा नहीं मिली एक स्वस्थ युवक को कोई सहज में भिक्षा न देता।
अन्त में एक घर पर यह पहुँचा, वहाँ एक नवयुवती ने बड़े सत्कार से इसे भोजन कराया। वास्तव में वह युवती इस युवक के तेजस्वी मुखमण्डल से बहुत प्रभावित हुई थी, क्योंकि इस छोटी सी आयु में इस युवक ने बहुत अधिक प्राप्तियाँ कर ली थीं। अतः इसका चेहरा किसी अज्ञात तेज से धहकने लगा था। इसी प्रकार दिन व्यतीत होने लगे। जब कभी इस युवक को कहीं से भिक्षा न प्राप्त होती तो वह इसी नवयुवती के यहाँ चला जाता और वह युवती बड़े स्नेहपूर्वक इस सँन्यासी युवक को भोजन कराती थी और सेवा करती। भोजन उपरान्त यह तपस्वी वापिस अपनी कुटिया में लौट जाता। यह क्रम बहुत दिन चलता रहा।
इसी बीच इन दोनों को परस्पर कुछ लगाव हो गया। यह तपस्वी चाहने पर भी अपने को इस बन्धन से मुक्त नही कर पाया। बस इसी लगाव ने एक अभिलाषा को जन्म दिया कि काश हम गृहस्थी होते। तभी इस युवक तपस्वी की भक्ति सम्पूर्ण हो गई तथा इसने अपना शरीर त्याग दिया परन्तु मन में बसी अभिलाषा ने इसे पूर्नजन्म लेने पर विवश किया और अब इसने मेरे बेटे के रूप में उस सँन्यासी ने उसी युवती का वरण किया है जो इसको भोजन कराती थी। वास्तव में इसकी भक्ति सम्पूर्ण थी केवल पुनः जन्म एक छोटी सी तृष्णा के कारण हुआ था, जो वह आज पूरी हुई थी। इस प्रकार वह तपस्वी युवक मेरे बेटे के रूप में बैकुण्ठ को जा रहा है। इसलिए मुझे किसी प्रकार का शोक हो ही नहीं सकता। अतः मैं हर प्रकार से सन्तुष्ट हूँ। यह वृतान्त सुनकर उस श्रद्धालू गुरूमुख सिंघ की शँका निवृत हो गई और वह जान गया कि ब्रहमज्ञानी हर समय प्रभु रँग में रँगे रहते हैं। उनको कोई सुख-दुख नहीं होता। उनके लिए मिटटी और सोना एक समान हैं और इनका शत्रु अथवा मित्र कोई नहीं होता। अतः यह लोग गृहस्थ में रहते हुए भी मन के पक्के वैरागी होते हैं और प्रभु लीला में ही इनकी भी खुशी होती है। यह प्रभु के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करते।