Saakhi – Guru Gobind Singh Ji Or Pehredar Sikh
गुरु गोबिंद सिंह जी और पहरेदार सिक्ख
कलगीधर जी जब शाम को अपने आराम स्थान पर बिराजते थे। पाँच या दस सिक्ख दिन-रात, हर-समय सतगुरु जी की सेवा में पहरे पर हाजिर (उपस्थित) रहते थे। एक दिन आनंदपुर साहब के नजदीक के गाँव में पुतलियों का तमाशा होना था। बहुत लोग यह तमाशा देखने गए। गुरू महाराज जी के शरीर पर पहरा देने वाले सिक्खों के कानों में भी तमाशे की आवाज पड़ी। कुछ सिक्खों ने सलाह की कि सतगुरू जी आराम कर रहे हैं, क्यों न हम सतगुरू के आराम करते-करते भाग कर पुतलियों का तमाशा देख आऐं। दूसरे सिंह कहने लगे कि आपको जाना है तो बेशक चले जाओ पर हम गुरू महाराज जी का पहरा छोड़ कर नहीं जा सकते।
कुछ समय आपसी विचार-विमर्श के बाद कुछ सिक्ख पहरे में से गैर हाजिर हो, पास के नगर कठपुतलियों का तमाशा देखने चले गए। वे सिक्ख पुतलियों का तमाशा तो आँखों के साथ देखते रहे परन्तु मन का ध्यान सतगुरू जी की तरफ ही रहा और साथ ही मन में पश्चाताप बना रहा कि हमने गलती की, सतगुरू जी के पहरे की अपेक्षा पुतलियों के तमाशे को तरजीह (पहल) दी है। अगर हमारे पीछे से सतगुरू जी जाग गयेे तो हम गुरू साहब जी को क्या मुँह दिखाएंगें ? हम कुछ भी जवाब देने लायक नहीं रहेंगे। तमाशा देखते, सारा समय मन में पश्चाताप और गुरू की याद (हज़ूरी) बनी रही।
वहीं जो सिक्ख सतगुरू जी के पहरे पर रुके थे, वे शारीरिक रूप से तो गुरू हज़ूरी में पहरा दे रहे थे परन्तु उनका मन और ध्यान कठपुतलियों के तमाशे में ही रहा कि अगर हम भी चले जाते तो तमाशा देख आते। जब भी उनके कानों में तमाशे की आवाज पड़ती मन गुरू हज़ूरी से निकल तमाशे की तरफ चला जाता। उनका मन सारा समय तमाशा देखने को लालायित रहा। वहीं तमाशा देखने वाले सिक्ख भी तमाशा देखने के बाद पश्चाताप में बदहवास जल्दी जल्दी, गुरू हज़ूरी में पहुंच गए।
दिन चढ़ा सतगुरू जी के दीवान सजे, रात वाले सिक्ख भी दीवान में हाजरी भर रहे थे। सतगुरु ऊँची आवाज में कहा कि ‘हाजिर-गैर हाजिर, गैर हाजिर-हाजिर’ सतगुरू द्वारा कहे गये यह वचन संगत समझ नहीं पाई। संगत में से कुछ सिक्खों ने विनती कर सतगुरू जी को इन वचनों के रहस्य के बारे में पूछा।
अंतरयामी सतगुरू जी ने रात वाले सिक्खों की पूरी कहानी संगत को सुनाई कि जो रात कठ-पुतलियों का तमाशा देखने गए थे। उनके शरीर की आँखें चाहे कठ-पुतलियों का तमाशा देख रही थीं लेकिन उन सिक्खों का मन हमारी हज़ूरी में थी। जो सिक्ख हमारे शरीर का पहरा दे रहे थे वे शारीरिक रूप से तो हमारी हाजिरी में थे परन्तु उनका मन तमाशे की हाजरी भर रहा था। गुरू दर में हाजरी की अपेक्षा हज़ूरी (याद) की ज्यादा महानता है।
सतगुरु कलगीधर जी ने संगत को संबोधन करते हुए गुरू नानक पातशाह जी की नमाज वाली साखी सुनाई और कहा, सिक्खो ! गुरू नानक पातशाह जी ने भी हाजरी की अपेक्षा हज़ूरी को ज्यादा महानता दे कर काजी और नवाब को हाजरी की अपेक्षा हज़ूरी में नमाज अदा करने का उपदेश दिया था।
वाहिगुरू को वही बंदगी स्वीकार है, जब हम खुदा की इबादत करते हुए जो मुँह से जो प्रभु की तारीफ (गुणगान) के बोल बोलते हैं ; अगर हमारी चेतना उन शब्दों को, प्रभु तारीफ के शब्दों को, ध्यान मगन हो कर सुन रही है तब वह बंदगी स्वीकृत है। अगर चेतना इबादत करते समय किसी दूसरी और भटकती है, ऐसी बंदगी प्रभु के दर पर स्वीकृत नहीं, वह केवल तोता रटन ही है।
शिक्षा – हम जब भी गुरू हाजरी में जाऐं वहां शरीर की हाजरी के साथ मन को भी गुरू हज़ूरी में रख कर गुरू ख़ुशी प्राप्त करें। सिमरन करने, वाणी पढऩे, कीर्तन करने और सुनते समय सावधान एकाग्र चित्त हो कर हाजरी और हज़ूरी दोनों को सम्मलित करके पूर्ण लाभ प्राप्त करें।
Waheguru Ji Ka Khalsa Waheguru Ji Ki Fateh
– Bhull Chukk Baksh Deni Ji –