Saakhi – Bhai Mati Das Ji Ki ShahidiSaakhi – Bhai Mati Das Ji Ki Shahidi

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भाई मतीदास जी की शहीदी

भाई मतीदास जो कि भाई पिरागा के सुपुत्र थे। भाई पिरागा छठे पातशाह का सिक्ख, कडिय़ाला गाँव, जिला जेहलम, जो आज-कल पाकिस्तान में है, का रहने वाला था। भाई पिरागा के चार सुपुत्र थे – भाई मतीदास, सतीदास, जतीदास, सखीदास। भाई मतीदास जी को सतगुरु गुरु तेग बहादुर साहब जी ने अपना दीवान नियुक्त कर रखा था।

भाई मतीदास और सतीदास की कुर्बानी गुरू साहब जी के साथ दिल्ली में हुई। जब गुरू साहब जी लोहे के पिंजरे में कैद थे तो भाई मति दास जी को काजी ने कहा सिक्खी छोड़ कर मुसलमान हो जाओ, आपको बहुत सुख दिए जाएंगे, परंतु भाई जी ने सभी संसारिक सुख और लालच ठुकरा दिए और कहा, मैं सिक्खी नहीं छोड़ सकता चाहे मेरी जान भी चली जाये।

काजी ने फिर कहा गुरू साहब का साथ छोड़ दो। भाई साहब ने कहा गुरू साहब जी को छोड़ कर मैं जिंदा नहीं रह सकता। मरना तो है ही, क्यों न सिक्खी निभा कर ही मरूँ। सरकार ने काजी से आरे चीरने का फतवा जारी करवा दिया, जिस को भाई साहब ने हँस कर कबूल किया। जब जल्लाद आरे को तीखा करने लगे तो भाई साहब ने कहा कि आप अपने आरे को तीखा करो, मैं अपने मन को तीखा करूँगा।

जल्लादों ने पूछा कि हम तो रेती से आरे को तीखा करेंगे, तुम्हारे पास मन को तीखा करन का क्या साधन है? तो भाई साहब ने उत्तर दिया कि मेरे पास गुरू नानक का बक्शा जपजी साहब का पाठ है। जिस जपजी के रंग को मेरे गुरू तेग बहादुर साहब ने प्रसन्न हो कर चढ़ाना किया है। जल्लादों ने मतीदास जी को पूछा तुझे आरे के साथ आज चीरा जाना है, तुझे डर नहीं लग रहा? तुम्हारा मन नहीं काँप रहा? मतीदास जी कहने लगे, जिस सिक्ख के अंदर गुरू की वाणी का निवास हो उसे डर नहीं लगता, न मन काँपता है, मैं तो आज बहुत ख़ुश हूँ जो गुरू साहब जी के सामने मुझे पंथ के लिए शहादत प्राप्त हो रही है। जिंदगी की कोई ऐसी चीज नहीं है जिसका मैंने गुरू कृपा सदका स्वाद (आनंद) न प्राप्त किया हो। बस एक यह आरा रह गया था जिस के साथ मुझे चीर कर शहीद किया जाना है।

मतीदास जी को आखिरी इच्छा पूछने पर भाई साहब ने जल्लादों को कहा कि अंत समय मेरा मुख गुरू तेग बहादुर साहब जी के पिंजरे की तरफ हो, जिससे मैं गुरू साहब जी के दर्शन करते हुए दरगाह को जाऊँ। भाई साहब ने जपजी का पाठ शुरू किया, इसके साथ ही जल्लादों ने आरा चलाना शुरू कर दिया सच्चे लहु की धारा दूर -दूर तक बहने लगीं, ख़ून के परनाले छूट पड़े। देखने वाले लोग, आरा चलाने वाला जल्लाद, फतवा देने वाला काजी काँप उठे, यह देख दंग रह गए परन्तु भाई साहब जी को जरा भी घबराहट नहीं थी।

जैसे-जैसे आरा चल रहा था चेहरे पर जलाल बढ़ रहा था। देखने वालों के रौंगटे खड़े हो गए। इस तरह की शहादत उन्होंने पहले कभी नहीं थी देखी थी। अभी ‘असंख जपु’ वाली पौड़ी (पद) पर ही पहुँचे थे कि जल्लादों ने शरीर को चीर कर दो हिस्सों में बाँट दिया। भाई साहब की जल्लादों को हिदायत थी कि चीरा बिल्कुल सीधा हो, अगर आपकी गलती से चीर टेढा लग गया तो कहीं कोई यह न कहे कि भाई साहब आरे से डरता डोल गया था, जब कि मैं अडोल (अचल) खड़ा हूँ।

इस के बाद एक ओर आश्चर्यजनक बात हुई कि शरीर दे दो हिस्से होने के बाद भी जपजी साहब की आवाज बंद नहीं हुई, दो हिस्सों में से एक ही आवाज आती रही। जैसा कि एक हिस्सा बोलता है ‘अंतु न सिफती कहणि न अंतु।’ दूसरे हिस्से में से आवाज आती है ‘अंतु न करणै देणि न अंतु।’ इस तरह जपजी साहब जी का संपूर्ण पाठ समाप्त हुआ और भाई साहब शहीद हो गए। दुनिया के इतिहास में भाई साहब जी की शहादत बेमिसाल है।

अरोध अरध चिराइि सु डारा।। परयो पृथवी पर हवै दो फारा।
दोनहुं तन ते जपु जी पढै। हेरत सब कर अचरज बढै ।46।
(गुर प्रताप सूरज, रासि 12, अंंसू 54)

इस प्रकार भाई मतीदास जी का मन नाम के पक्के रंग में रंगा हुआ था। जैसे मजीठे का रंग कपड़े को उपयोग करने-फटने के बाद भी नहीं उतरता। इसी तरह शरीर को चीरने के बाद भी वह रंग नहीं उतरा।

सतसंगति प्रीति साध अति गूड़ी
जिउु रंगु मजीठ बहु लागा।। (अंग 995)

शिक्षा – धन्य हैं गुरू के प्यार वाले सिक्ख, जिनके जीवन पढ़ कर इस तरह का प्यार गुरू के साथ हमारा भी हो जाये।

Waheguru Ji Ka Khalsa Waheguru Ji Ki Fateh
– Bhull Chuk Baksh Deni Ji –

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