Saakhi – Baba Budha Ji
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जीवन कहानी – बाबा बुढ़ा जी
बाबा बुढ़ा जी बड़े प्रसिद्ध और करनी वाले सिक्ख हुए हैं। इन्होंने सिक्खी का उपदेश गुरू नानक देव जी से लिया और छह पातशाहियों के दर्शन किये। बाबा जी का जन्म गाँव कत्थू नंगल, जिला अमृतसर में साल 1565 में हुआ। माता-पिता ने इनका नाम बूड़ा रखा। बाद में इनके माता-पिता रमदास रहने लगे। जब ये लगभग बारह वर्षों के हुए तो गुरू नानक देव जी घूमते-घूमते रमदास के पास आ ठहरे। बूड़ा जी भैंसें चराया करते थे। इन्होंने गुरू जी के दर्शन किये। इनको गुरू जी बड़े प्यारे लगे। इनके मन में गुरू जी की सेवा करने का चाव उठा। उनके लिए दूध और मक्खन लेकर बड़े प्रेम सहित सेवा में हाजिर हुए।
गुरू जी ने पूछा – ‘बच्चा तुम्हारा नाम क्या है? तू क्या करता होता है?’
बूड़ा – ‘सच्चे पातशाह ! माता-पिता ने मेरा नाम बूड़ा रखा है। मैं भैंसों का गडरिया हूँ।’
गुरू जी – ‘तू मन में क्या इच्छा करके हमारे पास आया है? तू क्या चाहता है?’
बूड़ा – ‘जी, मेरी विनती है कि मुझे मौत के दु:ख से बचाओ, इस चौरासी के चक्र में से निकालो और मुक्ति प्रदान करो।’
गुरू जी – ‘बच्चा, तेरी तो अभी खेलने कूदने और खाने पाने की उम्र है। तुझे मौत और मुक्ति के विचारों ने कैसे आ जकड़ा? बड़ा होने पर ऐसी बातें करना।’
बूड़ा – ‘महाराज जी मौत का क्या विश्वास है? क्या पता किस समय पर आ कर दबा ले। क्या पता बड़ा होऊँ कि न ही होऊँ।’
गुरू जी – ‘तुझे यह विचार कैसे आया?’
बूड़ा – ‘महाराज जी, थोड़ा समय ही हुआ है, कुछ पठान हमारे गाँव के पास से गुजरे। वह जबरदस्ती हमारी फसलें काट कर ले गए, पक्की भी, कच्ची भी और अद्र्ध-पक्की भी। तब से मुझे पल-पल ख्याल आता रहता है कि जैसे पठान कच्ची, पक्की फसलें काट कर ले गए हैं, उसी तरह ही मौत भी बच्चे, नौजवान और बूढ़े को जब मन करे, आ दबायेगी। क्या पता मेरी बारी कब आ जाये? इसलिए मैं मौत से डरता हूँ। यह डर दूर करो सच्चे पातशाह !’
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गुरू जी हँस पड़े और कहने लगे, ‘तू बच्चा नहीं। तूं तो बूढ़ा है। तूं बातें बुड्ढों वाली करता है। बलवान बनो! ईश्वर मौत की अपेक्षा कहीं बड़ा और बलवान है। अगर तू ईश्वर का हो जाये, तो मौत तुझे डरा न सकेगी, वह तुझसे डरने लग जायेगी, तू जन्म मरने के चक्र से सिवाय जाओगे। ईश्वर को हर समय पर याद रखा कर, उसका नाम जपा कर, उसके पैदा किये जीवों के साथ प्यार किया कर, उनकी प्रेम के साथ सेवा किया कर, तुम्हारे सभी डर और दु:ख दूर हो जाएंगे। तुझे मुक्ति मिल जायेगी।’
तब से ही बूड़ा जी का नाम ‘बाबा बूढ़ा जीÓ पड़ गया। बूढ़ा जी ने सिक्खी धारण की। यह घर -बार छोड़ कर गुरू जी के दरबार में रहने लग पड़े। सारा दिन संगतों की सेवा टहल करते और नाम जपते रहते। इन्होंने अपना जीवन सिक्खी के लिए नमूना (मिसाल) बनाया। इनका गुरूघर में खास दर्जा और सम्मान था। गुरू नानक देव जी इन पर बहुत ही प्रसन्न थे। जब गुरू नानक देव जी ने गुर-गद्दी गुरू अंगद देव जी को सौंपी, तो उनको गुरगद्दी का तिलक बाबा बूढ़ा जी से लगवाया। तीसरी, चौथी, पाँचवी और छठी पातशाही को भी गुरगद्दी का तिलक बाबा बूढ़ा जी ने ही लगाया। जिला अमृतसर के झबाल गाँव के पास काफी जमीन गुरू जी को भेटा हुई थी। यहाँ गुरू साहबों के पशु चराया करते थे।
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इस जमीन को ‘बीड़’ कहते थे। यह बाबा बूढ़ा जी के सुपुर्द की गई। बाबा जी ने अपनी उम्र का बहुत सारा वक्त बीड़ में ही गुजारा। वह घास खोद-खोद (काट) कर गुरू जी के घोड़ों और भैंसों को डाला करते थे। वह अपने आप को गुरू जी का घसियारा (घास खोदने वाला) कहा करते थे। इस बीड़ का नाम ‘बाबा की बीड़’ पड़ गया। यहाँ इस नाम का ऐतिहासिक गुरुद्वारा शुसोभित है। इसी बीड़ में ही श्री गुरु अरजन देव जी के महल (पत्नी) माता गंगा जी, बाबा जी की सेवा में उपस्थित हुए थे और आप ने उनको पुत्र का वर दिया था।
श्री अमृतसर के सरोवर और श्री दरबार साहब की कार-सेवा में आप मुख्य-प्रबंधक बने। श्री दरबार साहब की परिक्रमा में उत्तर-पूर्व की तरफ बाबा बूढ़ा जी की बेरी (बेर का वृक्ष) अब तक मौजूद है। इस बेरी के नीचे बैठ कर संगतों से ठीक ढंग से सेवा करवाया करते थे और कारीगरों व मजदूरों को तनख्वाहें बँटा करते थे। आप संगतों को फावड़े, टोकरियाँ और चाही गई वस्तु दिया करते थे और सभी काम की निगरानी किया करते थे।
आपका गुरू-घर में बहुत सम्मान था। गुरू अरजन देव जी ने अपने साहिबजादे श्री हरिगोबिन्द साहब की पढ़ाई प्रशिक्षण का काम आपके ही सुपुर्द किया। इन्होंने श्री हरिगोबिन्द साहब को गुरमुखी और गुरबानी पढ़ाई और साथ ही घोड़ों की सवारी, शस्त्रों का प्रयोग, कुश्ती और ओर शारीरिक प्रशिक्षण भी कराई। श्री गुरु हरगोबिंद साहब जी के दूसरे साहिबजादे को भी बाबा जी ने ही प्रशिक्षण पढ़ाई कराई।
जब गुरू अरजन देव जी ने श्री गुरु ग्रंथ साहब जी की बीड़ तैयार करवा कर उसका प्रकाश श्री दरबार साहब में किया तो उन्होंने बाबा बूढ़ा जी को श्री दरबार साहब का पहला ग्रंथी नियत किया। बाबा बूढ़ा जी सवा सौ वर्ष की उम्र प्राप्त कर साल 1688 में गुरू हरगोबिंद साहब जी के समय, गाँव रमदास में अकाल चलाणा (ईश्वर चरणों में जा समाये) कर गए। गुरू जी ने बाबा जी का अंतिम संस्कार अपने हाथों किया। संस्कार वाली जगह एक सुंदर गुरूघर ‘सच्चखंड’ सुशोभित है। यह ऐतिहासिक गुरुद्वारा है।
Waheguru Ji Ka Khalsa Waheguru Ji Ki Fateh
– Bhull Chuk Baksh Deni Ji –