Bhai Gurdas Ji | Short Biography in Hindi

Bhai Gurdas Ji | Short Biography in Hindi
Bhai Gurdas Ji | Short Biography in Hindi

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भाई गुरदास जी | संक्षेप जीवन वृतांत

भाई गुरदास जी को गुरबानी का पहला व्याख्याकार माना जाता है। उनके लेखन को सिक्खों के पवित्र शास्त्रों को समझने की कुंजी माना जाता है। भाई गुरदास जी का जन्म 1551 में पंजाब के एक छोटे से गाँव बसरके गिलान में हुआ था। वह भाई ईशर दास जी (गुरु अमर दास जी के चचेरे भाई) और बीबी जीवनी की इकलौती संतान थे। जब भाई गुरदास जी की उम्र लगभग 3 वर्ष थी तब उनकी माँ का देहांत हो गया। भाई गुरदास जी के 12 साल की उम्र में अनाथ होने के बाद उन्हें गुरु अमर दास ने गोद ले लिया।

1579 ई. में चौथे सिख गुरु, गुरु राम दास जी से प्रभावित हो भाई गुरदास सिक्ख बन गए। भाई गुरदास गुरु अर्जन देव जी की माता माता भानी के चचेरे भाई थे। भाई गुरदास ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा गुरु अमर दास के मार्गदर्शन में प्राप्त की। जहाँ भाई गुरदास जी ने संस्कृत, ब्रजभाषा, फारसी और पंजाबी सीखी और अंततः सिख धर्म का उपदेश देना शुरू किया। उन्होंने अपने शुरुआती साल गोइंदवाल और सुल्तानपुर लोधी में बिताए। गोइंदवाल में रहने के दौरान, भाई गुरदास जी ने दिल्ली-लाहौर मार्ग पर गोइंदवाल होकर अक्सर गुजरने वाले विद्वानों और संतों, महापुरुषों की बातें सुनी और देश दुनिया का काफी ज्ञान प्राप्त किया। बाद में वे वाराणसी चले गए, जहाँ उन्होंने संस्कृत और हिंदू शास्त्रों का अध्ययन किया। गुरु अमर दास जी की मृत्यु के बाद, उनके उत्तराधिकारी गुरु राम दास जी ने भाई गुरदास जी की नियुक्ति एक सिख मिशनरी के रूप में आगरा में कर दी।

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गुरु राम दास जी के निधन के बाद भाई गुरदास जी वापस पंजाब आ गए। जहाँ उन्हें गुरु अर्जन देव जी की संगति में सिख धर्म का अध्ययन और निरीक्षण करने का अवसर मिला। इस दौरान भाई गुरदास जी ने हरिमंदिर साहिब (स्वर्ण मंदिर अमृतसर) के निर्माण में भी अहम भूमिका निभाई। गुरु राम दास जी के देहांत के बाद गुरु अरजन देव जी को सिक्खों के पांचवें गुरु के रूप में उत्तराधिकारी बनाया गया जिनके साथ भाई गुरदास जी के काफी घनिष्ठ संबंध बने रहे। गुरु अरजन देव जी उनका बहुत आदर करते थे और उन्हें अपने मामा के रूप में मानते थे।

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भाई गुरदास जी ने 40 वार (गाथागीत) और 556 कबीत (पंजाबी कविता के दोनों रूप) जिन्हें सिक्ख साहित्य और दर्शन का सर्वश्रेष्ठ नमूना माना जाता है। उन्हें 1604 में पांचवें सिख गुरु, गुरु अरजन देव जी द्वारा संकलित सबसे पवित्र सिख ग्रंथ, श्री गुरु ग्रंथ साहिब (श्री आदि ग्रंथ) को लिखने का भी सुअवसर मिला। इसके अलावा उन्होंने विभिन्न सिख धर्मग्रंथों के लेखन में लगे चार अन्य शास्त्रियों (भाई हरिया, भाई संत दास, भाई सुखा और भाई मनसा राम) के कार्य की निगरानी तथा पर्यवेक्षण किया। पंजाबी में उनके द्वारा किये गये सृजन को सामूहिक रूप से वाराँ भाई गुरदास जी कहा जाता है।

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सिक्खों के पवित्र धार्मिक स्थल अकाल तख्त की स्थापना छठे गुरु श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी ने ने 15 जून 1606 को की। इस इमारत की आधारशिला खुद गुरु हरगोबिंद साहिब जी ने रखी थी। बाकी की संरचना बाबा बुढा जी और भाई गुरदास जी द्वारा पूरी की गई थी। किसी भी राजमिस्त्री या किसी अन्य व्यक्ति को संरचना के निर्माण में भाग लेने की अनुमति नहीं थी। गुरु हरगोबिंद स्वयं तख्त के संरक्षक थे। जब मुगल सम्राट जहांगीर ने सिख धर्म की लोकप्रियता से ईर्ष्या करते हुए 31 दिसंबर 1612 को, श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी को ग्वालियर किले में कैद कर लिया, तब गुरु साहिब ने बाबा बुढा जी को श्री हरमंदिर साहिब तथा भाई गुरदास जी को अकाल तख्त के पहले जत्थेदार के रूप में सेवाएं देने के लिए नियुक्त किया था। इस दौरान भाई गुरदास जी सिखों का एक जत्था लेकर ग्वालियर भी गए।

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भाई गुरदास जी ने श्रीलंका, काबुल, कश्मीर, राजस्थान और वाराणसी में एक सिक्ख प्रचारक के रूप में अनेक यात्राएं की तथा लोगों के बीच सिक्ख धर्म की विशेषताएँ तथा गुरु के नाम का प्रचार कर उन्हें जीवन का सही मार्ग दिखाया। भाई गुरदास जी को चार गुरुओं का साथ पाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। भाई गुरदास जी का निधन 25 अगस्त 1636 को गोइंदवाल साहिब में हुआ तथा छठे गुरु श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी ने व्यक्तिगत रूप से उनके अंतिम संस्कार की सारी औपचारिक रस्में पूर्ण की। भाई गुरदास जी न केवल सिख धर्मग्रंथों के व्याख्याकार और सिख धर्म के उपदेशक थे, वे सिख धर्म के चलते फिरते विश्वकोश थे। भाई गुरदास ने अपने लेखन में सिख इतिहास का बहुत ही सुन्दर दस्तावेजीकरण किया।

Waheguru Ji Ka Khalsa Waheguru Ji Ki Fateh
— Bhull Chukk Baksh Deni Ji —

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